विविध रोगों
में आभूषण-चिकित्सा
भारतीय समाज में स्त्री पुरूषों में आभूषण
पहनने की परम्परा प्राचीनकाल से चली आ रही है। आभूषण धारण करने का अपना एक महत्त्व
है, जो शरीर और मन से जुड़ा हुआ है। स्वर्ण के आभूषणों की प्रकृति गर्म है तथा
चाँदी के गहनों की प्रकृति शीतल है।
आभूषणों में किसी विपरीत धातु के टाँके से भी
गड़बड़ी हो जाती है, अतः सदैव
टाँकारहित आभूषण पहनना चाहिए अथवा यदि टाँका हो तो उसी धातु का होना चाहिए जिससे गहना बना हो।
टाँकारहित आभूषण पहनना चाहिए अथवा यदि टाँका हो तो उसी धातु का होना चाहिए जिससे गहना बना हो।
विद्युत सदैव सिरों तथा किनारों की ओर से
प्रवेश किया करती है। अतः मस्तिष्क के दोनों भागों को विद्युत के प्रभावों से
प्रभावशाली बनाना हो तो नाक और कान में छिद्र करके सोना पहनना चाहिए। कानों में
सोने की बालियाँ अथवा झुमके आदि पहनने से स्त्रियों में मासिक धर्म संबंधी
अनियमितता कम होती है, हिस्टीरिया में लाभ होता है तथा आँत उतरने अर्थात हर्निया का
रोग नहीं होता है। नाक में नथुनी धारण करने से नासिका संबंधी रोग नहीं होते तथा
सर्दी-खाँसी में राहत मिलती है। पैरों की उंगलियों में चाँदी की बिछिया पहनने से
स्त्रियों में प्रसवपीड़ा कम होती है, साइटिका रोग एवं दिमागी विकार दूर होकर
स्मरणशक्ति में वृद्धि होती है। पायल पहनने से पीठ, एड़ी एवं घुटनों के दर्द में
राहत मिलती है, हिस्टीरिया के दौरे नहीं पड़ते तथा श्वास रोग की संभावना दूर हो
जाती है। इसके साथ ही रक्तशुद्धि होती है तथा मूत्ररोग की शिकायत नहीं
रहती।
मानवीय जीवन को स्वस्थ व आनन्दमय बनाने के लिए
वैदिक रस्मों में सोलह श्रृंगार अनिवार्य करार दिये गये हैं, जिसमें कर्णछेदन तो
अति महत्त्वपूर्ण है। प्राचीनकाल में प्रत्येक बच्चे को, चाहे वह लड़का हो या
लड़की, के तीन से पाँच वर्ष की आयु में दोनों कानों का छेदन करके जस्ता या सोने की
बालियाँ पहना दी जाती थीं। इस विधि का उद्देश्य अनेक रोगों की जड़ें बाल्यकाल ही
में उखाड़ देना था। अनेक अनुभवी महापुरूषों का कहना है कि इस क्रिया से आँत उतरना,
अंडकोष बढ़ना तथा पसलियों के रोग नहीं होते हैं। छोटे बच्चों की पसली बार-बार उतर
जाती है उसे रोकने के लिए नवजात शिशु जब छः दिन का होता है तब परिजन उसे हँसली और
कड़ा पहनाते हैं। कड़ा पहनने से शिशु के सिकुड़े हुए हाथ-पैर भी गुरूत्वाकर्षण के
कारण सीधे हो जाते हैं। बच्चों को खड़े रहने की क्रिया में भी बड़ा बलप्रदायक होता
है।
यह मान्यता भी है कि मस्तक पर बिंदिया अथवा
तिलक लगाने से चित्त की एकाग्रता विकसित होती है तथा मस्तिष्क में पैदा होने वाले
विचार असमंजस की स्थिति से मुक्त होते हैं। आजकल बिंदिया में सम्मिलित लाल तत्त्व
पारे का लाल आक्साइड होता है जो कि शरीर के लिए लाभप्रदायक सिद्ध होता है। बिंदिया
एवं शुद्ध चंदन के प्रयोग से मुखमंडल झुर्रीरहित बनता है। माँग में टीका पहनने से
मस्तिष्क संबंधी क्रियाएँ नियंत्रित, संतुलित तथा नियमित रहती हैं एवं मस्तिष्कीय
विकार नष्ट होते हैं लेकिन वर्त्तमान में जो केमिकल की बिंदिया चल पड़ी है वह लाभ
के बजाय हानि करती है।
हाथ की सबसे छोटी उंगली में
अँगूठी पहनने से छाती का दर्द व घबराहट से रक्षा होती है तथा ज्वर, कफ, दमा आदि के प्रकोपों से बचाव होता
है। स्वर्ण के आभूषण पवित्र, सौभाग्यवर्धक तथा
संतोषप्रदायक हैं। रत्नजड़ित आभूषण धारण करने से ग्रहों की पीड़ा, दुष्टों की नजर
एवं बुरे स्वप्नों का नाश होता है। शुक्राचार्य के अनुसार पुत्र की कामनावाली
स्त्रियों को हीरा नहीं पहनना चाहिए।
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